झील किनारे बैठी सुरती दूर उठते धुएं को निहार रही थी .यहाँ थर्मल की झील के सामने अपनी झुग्गी डाले उसे तीन साल हो गए है . यहाँ वह अपने छ बच्चों के साथ झाडू बना कर बेचती रही है .इससे पहले वह उसके जैसे लोग भट्टी रोड पर रहते थे .अचानक एक दिन उन्हें वहां से उजाड़ दिया गया .तो वे सब यहाँ आ गए . पहले तो बड़ी मुश्किल हुई .छोटे छोटे बच्चे अक्सर सडक के बीचोबीच आ जाते तो उसका कलेजा मुंह को आ जाता . अब बच्चे सडक पार करना सीख गए है बडकू तो झील से कभी कभी मछली भी पकड़ लाता है .पर कल फिर पुलिस वाले अपने साथ किसी साहब को लेके आये थे - चलो चलो कल सुबह तक सड़क खाली करो सडक चौड़ी होगी समझे . सुरती को कुछ समझ नहीं पद रहा . अब किधर जायेगी .जाना तो पड़ेगा और कोई चारा ही नहीं है
मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017
झील किनारे बैठी सुरती दूर उठते धुएं को निहार रही थी .यहाँ थर्मल की झील के सामने अपनी झुग्गी डाले उसे तीन साल हो गए है . यहाँ वह अपने छ बच्चों के साथ झाडू बना कर बेचती रही है .इससे पहले वह उसके जैसे लोग भट्टी रोड पर रहते थे .अचानक एक दिन उन्हें वहां से उजाड़ दिया गया .तो वे सब यहाँ आ गए . पहले तो बड़ी मुश्किल हुई .छोटे छोटे बच्चे अक्सर सडक के बीचोबीच आ जाते तो उसका कलेजा मुंह को आ जाता . अब बच्चे सडक पार करना सीख गए है बडकू तो झील से कभी कभी मछली भी पकड़ लाता है .पर कल फिर पुलिस वाले अपने साथ किसी साहब को लेके आये थे - चलो चलो कल सुबह तक सड़क खाली करो सडक चौड़ी होगी समझे . सुरती को कुछ समझ नहीं पद रहा . अब किधर जायेगी .जाना तो पड़ेगा और कोई चारा ही नहीं है
रविवार, 19 फ़रवरी 2017
रानी हमारे घर अपनी शादी का कार्ड देने आई थी। मैंने उसे बधाई दी - एकदम सही फैसला किया तूने। सारी जिंदगी कोई अकेला कैसे रह सकता है। बिलकुल सही समय पर शादी कर रही हो " आपने ही मुझे शादी के लिए तैयार किया दीदी। वर्ना मैंने तो फैसला कर लिया था सारी जिंदगी ऐसे ही अकेले काटने का। आप आशीर्वाद देने जरूर आना। मैंने आने का पक्का वादा किया। वह चली गयी।
मैंने कार्ड उलट पलट कर देखा। दो दिन बाद की शादी थी। चलो रानी अपनी जिंदगी में सैटल हो जायेगी। सोच कर अच्छा लगा
रानी ने मेरे ऑफिस में दो साल पहले जॉइन किया था। यह पहली बार था जब कोई लड़की अकेली सर्विस जॉइन करने आई थी वरना हर लड़की के साथ माँ बाप या भाई आते। दफ्तर के माहौल के बारे में पूछ ताछ करते। रहने का इंतजाम करते। पूरी तसल्ली होने पर ही वापिस लौटते। और यह लड़की। इस तरह अकेली। उसकी आँखों में असुरक्षा और अनिश्चितता स्पष्ट दिख रही थी फिर भी निडर और निशशँक दिखने की पूरी कोशिश कर रही थी।
मैंने बाकी लोगों से उसका परिचय कराया। शर्मा जी ने उसे उसका काम और सीट दिखा दी। शाम को छुट्टी से पहले उसे कैबिन में बुला कर पूछा - कहाँ रहने का इंतजाम किया है ? वह अचकचा गयी। अभी तो सोचा नहीं ऑफिस के बाद स्टेशन जाकर सामान लाना है। अभी क्लॉक रूम में जमा है। फिर कोई अच्छा सा होटल ले लेगी। दो चार दिन में घर मिल जाएगा तो वहां शिफ्ट कर लेगी।" वह एक साँस में बोल गयी।" चलो मेरे साथ। " मैंने गाडी की चाबी और पर्स उठाते हुए कहा तो वह बिना कोई सवाल किये मेरे पीछे पीछे चल दी।
हमने स्टेशन से उसका सामान लिया। वह मेरे साथ मेरे घर आ गई। लेकिन न तो उसने कोई फोन किया न कोई फोन आया। रात के खाने की मेज पर उसने कहा - दीदी आप को परेशानी हुई। मैं तो होटल में भी रह जाती।
" पागल हुई हो. इस छोटे से शहर में ऐसा कोई ढंग का होटल नहीं है जहाँ जवान खूबसूरत लड़कियाँ अकेली जाकर रह सकें। " उसकी आँखों में नमी छलक आई थी जिसने उसे भीतर ही समा लिया -
" दीदी मैं तो इससे भी छोटे शहर में अकेली रहती हूँ। आज से नहीं , पिछले सात साल से। "
तुम्हारे घर में.... . "
" कहने को सब हैं पर मैंने ही घर छोड़ दिया। "
मैंने सांत्वना देने को कहा -" छोड़ो यह सब पहले खाना खाओ।" और वह चुपचाप कौर तोड़ने लगी थी। चार दिन में ही दीपक और अंकुर ने उसके लिए एक सुरक्षित छोटा सा घर ढूंढ दिया था। पर वह अक्सर छुट्टी वाले दिन मेरे बच्चों से मिलने चली आती।
एक दिन बातों बातों में उसने अपनी राम कहानी बताई।
जब वह मात्र अठारह साल की थी और बी ए में दाखिला लिया ही था कि उसकी मौसी ने अपने देवर के मन में रानी के लिए आकर्षण देख उसके रिश्ते की बात चलाई . देवेन्दर ने तब बी एस सी के दुसरे साल में दाखिला लिया था . एक सादे फंक्शन में दोनों की सगाई हो गई .सब ठीक चल रहा था . परिवारों ने फैसला लिया कि इस बैशाख में दोनों की शादी कर देंगे .अचानक देवेंदर का pmt में चयन हो गया और शादी टल गयी . लेकिन देवेंदर और रानी एक दुसरे को ख़त लिखते रहे .देवेंदर की चिट्ठियों में लम्बे लम्बे प्रणय निवेदन रहते .
समस्या तब हुई जब रानी से चार साल छोटी गुड्डी का भी एम् बी बी एस में दाखिला हो गया . देवेंदर ने फोन पर रानी को कहा -तुम कहो तो मै गुड्डी से शादी कर लूं .एक बार तो रानी सन्न रह गयी फिर उसे लगा देवेंदर मजाक कर रहा है . इतने साल का प्रेम ऐसे कैसे खत्म हो जाएगा .उसने हंसते हुए कहा -जाओ कर लो शादी .
देवेंदर की बहन और माँ अगले ही दिन गुड्डी का रिश्ता लेकर पहुँच गयी .हैरानी की बात यह कि रानी के घर वालों को भी दो डाक्टरों का रिश्ता सही लगा . एक ही हफ्ते में गुड्डी मिसेज देवेंदर हो गयी रानी ने घर छोड़ दिया .माँ ने उसे मनाने समझाने की कोशिश भी की पर बाकी किसी को कोई फर्क पड़ा हो ऐसा रानी को लगा नहीं . वह होस्टल में रह रही थी बी ए खत्म होते ही उसने एक ऑफिस में नौकरी कर ली और दोबारा घर गयी ही नहीं . अकेले अपने आप से और समाज से लड़ रही थी . मैंने उसे आशा वादी होने की सलाह दी .
आज दफ्तर के ही मनोज से उसने शादी कर घर बसाने का फैसला किया था .दोस्तों और रिश्तेदारों के नाम पर चंद दफ्तर के ही लोग इस कोर्ट मैरिज और पार्टी में शामिल हो रहे थे .मेरा जाना तो बनता ही था .
शनिवार, 11 फ़रवरी 2017
गर्मी का
महीना . जून
के अलसाए दिन .
उस पर स्कूल की
छुट्टियाँ .
यानि एक करेला दूजे
नीम चढ़ा . मन
चाहता -तितली
की तरह मस्त हो अमराई में घूमूं
और खट्टी खट्टी कैरियां चुन
चुन के खाऊ .
पर माँ की आग्नेय
आँखों की आंच झेलने की हिम्मत
इस नन्हीं सी जान में कहाँ थी
.मन
मार कर तकिये में सर घुसाए
निस्पंद लेटी थी .
लेकिन मन था की पंखे
की तरह लगातार चक्कर काट रहा
था .
अचानक
अलमारी खुलने की आहट हुई .चोर
आँख से देखा -माँ
श्रृंगार मेज के सामने खड़ी
अपनी साडी की भंज जमा रही थी
. हूँ
…...... हमें
तो ….लू
लग जायेगी बेटे ….बाहर
नहीं निकलना .
खुद कहाँ जा रही हैं
. मैंने
मन ही मन इस नजर बंदी से फरार
होने की योजना बना ली .
तभी बाहर
पास ही शंख और घड़ियाल बजने का
कोलाहल सुनाई दिया .माँ
बाथरूम चप्पल में ही साडी के
पल्ले से सर ढकती बाहर के गेट
पर लपकी .पीछे
पीछे में .
बाहर गली
का दृश्य अनोखा ही वातावरण
सृजन कर रहा था .
सावित्री दी ने सर
से पाँव तक सफ़ेद कपड़े पहने थे
. हमेशा
स्कर्ट या जींस में घूमने वाली
सत्तो दी सूती सफेद चुन्नी
में सर लपेटे अजूबा लग रही थी
. लोग
लपक लपक कर उनके पैर छूने की
कोशिश कर रहे थे .
सारे माधो नगर ,तिलक
नगर और गढ़ी के लोगों में होड़
लगी थी - कौन
पहले चरण स्पर्श करेगा और
मोक्ष पहले कौन पायेगा .
किन्ही स्वामी जी
की जय जयकार के साथ सावित्री
दी की जय वातावरण को गूंजा रही
थी . सत्तो
दी इस सब से निर्विकार आकाश
में न जाने क्या ढूंढ रही थी
.
भगवे
वस्त्रो में आच्छादित कुछ
साध्वियों ने भीड़ को एक तरफ
हटने का संकेत दिया .भीड़
एक मिनट में दोनों हाथ जोड़ कर
सडक के दोनों ओर खड़ी हो गई .
सत्तो दी को खुली
जीप में बिठा दिया गया .भीड़
ने गेंदे और गुलाब की वर्षा
की . शंख
बजे .जय
घोष आकाश गूंजा गया जीप चल पड़ी
साथ ही उन्मादी भीड़ भी जयकारे
लगाती आगे आगे चली .माँ
ने अपनी जगह खड़े ही प्रणाम
मुद्रा में हाथ माथे से छुहाये
.माँनो
बहती गंगा में स्नान किया .
मैंने माँ
का हाथ खींचते हुए पूछा -
माँ !
आज सतो दी का ब्याह
है ? “ हट
पगली कही की "
माँ ने हल्की चपत
लगाई और ईश्वर से मेरे इस अपराध
की क्षमा मांग ली .
तेरी सत्तो दी तो
साध्वी बन गई री .
शादी ब्याह जन्म
मरण से बहुत उपर उठ गई हैं .
“
मेरी कुछ
समझ नही आया .
में तोशी के पास गई
.तोशी
!! दीदी
जीप में बैठके कहाँ चली गई
.तोशी
की आँखे रो रो कर लाल हो गई थी
- दी
अब घर कभी नहीं आएगी .
वो आश्रम चली गई .
"
"आश्रम
क्यों "
वे सन्यासिन
हो गई हैं
पर दी की
तो शादी होने वाली थी न .:
शादी कहाँ
? जहाँ
भी बात चली हमेशा लेन देन पर
आकर अटक गयी .कुछ
दिन बाद लडके वालों की चिट्ठी
आ जाती .लडकी
की कुंडली नहीं मिल रही .पांच
बार रिश्ता होते होते रह गया
. “
पर दी को
तो सर्वंन पसंद था न .अब
तो कालिज में पढ़ाने भी लग गया
है .उसकी
माँ खुद रिश्ता लेके आई थी न
"
उसके लिए
न ताउजी माने न पापा .
यादव था न फिर शर्मा
की बेटी से शादी कैसे होती
.ताऊ
जी ने माँ -बेटे
की बेज्जती करके घर से निकाल
दिया .
साध्वी
बनने का फैसला दी ने लिया था
.माँ
बहुत रोई .पापा
ने समझाया .फिर
हामी भर दी .
पिछले पन्द्रह दिन
से तैयारी चल रही थी .कल
भगवन से दी की शादी है .
शादी या
? -मुझे
अब भी कुछ समझ नहीं आ रहा .
गुरुवार, 9 फ़रवरी 2017
सुमन की माँ दो कोठी में काम करती है . सुमन और उसके दोनों भाई सुबह होते ही सड़क पर कचरा बीनने आते है .सुबह क्या मुंह अँधेरे ही निकलते हैं . घंटाघर की घड़ी तब साढ़े चार या हद से हद पांच बज रहे होते हैं . सड़क पर गिरी बोतलें ,खाली डिब्बे गत्ते के कार्टन ,सब सधे हाथों से साथ के बोरे में समाते चले जाते है .हाथ तेज ,नजरें उससे भी तेज चल रही होती हैं .जितनी जल्दी चुना जा सके उतना अच्छा . ठीक छह बजते ही झाड़ू देने वाले माँ बेटा आ जायेंगे .फिर उन्हें घर लौटना होगा क्योंकि उसके बाद के सारे कचरे पर गोबिंद का हक हो जाता है . कचरे का बोरा लेकर वे कबाड़ी मोहन के डेरे पर जाते है .उस दिन का सामान ढेर कर सवालिया नजरों से मोहन को देखते है .मोहन तराजू पर तौलता है और कुछ रूपये उनके हाथ पर रख देता है .रूपये लेकर बच्चे रौनक की दूकान पर जाते है .दाल चावल या आटा जो मिल जाए जितना मिल जाए लेकर घर झुग्गी में लौटते है चूल्हा जलता है खाना बनता है थोडा थोडा खाकर बच्चे स्कुल चले जाते हैं . यह उनका रोज़ का नियम है .सर्दी गर्मी बरसात कभी कोई फर्क नहीं . फर्क सिर्फ इतना कि आज सुमन ने कबाड़ी के पास मेडिकल की किताबे देखी तो मांग ली और गजब ये कि कंजूस मोहन ने बिना कोई किन्तु परन्तु के वे सारी किताबें सुमन को दे भी दी हैं .सुमन उन किताबों को गले लगाये झुग्गी में जगमगाती आँखों में जगमगाते सपने सजाये बिलकुल उसी प्रकार बैठी है जैसे ग्यारहवी में मेडिकल सब्जेक्ट लेने के बाद बैठी थी . डाक्टर तो बनना ही है . चाहे साड़ी रात मोमबत्ती की रौशनी में पढना पड़े . जागती आँखों के सपने सुना है अवश्य पूरे होते हैं
सोमवार, 6 फ़रवरी 2017
नरेंद्र कौर , हाँ यही नाम था उसका। मोटी तो नहीं पर गुथें बदन की मालकिन नरेंद्र कौर। कोई नाम छोटा कर बुलाने की कोशिश करता तो गुस्से से जलता अंगारा हो जाती। दो भाइयों की इकलौती बहन , माँ बाप से ज्यादा दादा दादी की लाडली।
पढ़ाई में बहुत अच्छे में तो नहीं पर गुजारे लायक नम्बर आ ही जाते। बारहवीं में अंग्रेजी में सबसे ज्यादा नम्बर आये तो पक्का हो गया कि अंग्रेजी ही पढ़ानी है बड़े होकर। एक दिन बी ए , बी एड करके सरकारी स्कूल में भैन जी हो गई।
घर में पहली तनख्वाह के पच्चीस सौ आये तो नरेंद्र कौर की शादी का जिक्र भी शुरू हुआ। पहला रिश्ता आया लड़का बैंक में नौकर था। पर बात सिरे न चढ़ी । लड़का नरेंद्र को पसन्द ही नहीं आया . बोली - कैसे चपर चपर खाता है और हंसता तो पूरा मुँह खोल के है . मैंने नई करना इससे ब्याह। घर वाले बोले कोई बात नहीं। रिश्तों की क्या कमी हमारी नरेंद्र कौर को। एक रिश्ता आता एक रिश्ता जाता। कोई लड़का काल था। कोई लम्बा नहीं था और एक लड़का तो इसलिए नापसन्द हो गया कि उसने पहला सेंटेंस जो बोला कितना गलत था। फिर एक दिन सुरेंदर को एक लड़का कुछ कुछ ठीक सा लगा तो लड़के ने कद कम होने की बात कह के रिश्ते से मन कर दिया
दादी ने बात सम्भालने की कोशिश भी की। कम कहाँ जी पूरे पंज फुट तिन इंच है जी कद। पर लड़के का कद था छः फुट। सो इस बार भी बात बनते बनते रह गई। धीरे धीरे साल बीत ते गए। नरेंद्र कौर बत्तीस पार कर गई । रिश्तों की तलाश और तेजी से शुरू हुई। अब रिश्तेदारों ने विधुर और तलाक शुदा पुरुषों के रिश्ते जुटाने शुरू किये क्योंकि इस उम्र तक का कोई लड़का कुंवारा बिरादरी में मिलना तो असम्भव ही था। करते करते जब सैंतीस भी पार हो गए तो माँ बाप की बैचैनी बढ़ी। पर एक दिन स्वयम नरेंद्र कौर ने इस सारी प्रक्रिया पर रोक लगा कर अध्याय को हमेशा हमेशा के लिए बन्द कर दिया। उसने दो गरीब बच्चों की देखभाल और शिक्षा का सारा जिम्मा लेकर उनकी जिंदगी सँवारने का जिम्मा लिया है।
बुधवार, 1 फ़रवरी 2017
मजनू आजकल रिक्शा चलाता है . जो कमाता है शराब और गुटके की पुड़िया में उड़ा देता है . उसकी मेहरारू बिशनसिंह की मेहरारू कहलाती है .यही पक्का नाम है मजनू का . एकदम छुईमुई सी पतली दुबली अगर बच्चों की पलटन साथ न हो तो कोई मान ही नहीं सकता कि वह पांच बच्चों की माँ है . कितने बरस की हो के सवाल पर वो उँगलियों पर गिनने का उपक्रम करती है -एक ठो पांच बीसी तो हो गए दीदी जी . सिर्फ पच्चीस साल , जी दीदी जी सलमान का बाप ठहरा मौसे कोई दसेक बरिस बड़े . तो उ ठहरे पैतीस क .नसा ने खा लिए . . तू रोकती नहीं .वह मुस्कराई थी .खर्च कैसा चलता है -दो ठो देवर है गाँव के ओही खर्चा चलावत है सगरा . वह मानवती मुझे अनुत्तरित कर चली गई .
रविवार, 29 जनवरी 2017
पत्थर
सुस्मिता की माँ का देहांत जिन हालात में हुआ कोई भी दहल सकता था। फिर सुस्मिता का तो कहना ही क्या ?
उसकी माँ ने रात के दो बजे घर के बाहर बने पर्दे वाले बिना छत के गुसलखाने में आग लगा कर आत्महत्या कर ली थी। माँ की चीखें देर तक हवा में गूंजती रही थी पर माँ दो मिनट में ही राख के ढेर में बदल गई। सोये लोग हड़बड़ा कर उनके घर के आंगन की ओर भागे थे। जगह जगह झुण्ड बना कर चर्चा में लीन थे।
दुबली पतली सी ,साँवली सलोनी, एकदम से शान्त ,मीरा ऐसा कैसे कर सकती है। सब सोच में पड़े थे। उसके बाद कोई नहीं सोया था।
दो घंटे बाद पुलिस आई थी। ब्यान हुए। सास ने कहा -जिस दिन से छोटी बेटी हुई उसी दिन से गुमसुम रहती थी जी हम तो बहुत समझाते थे पर गम को दिल से लगा ये कारा कर गई। "
पति ने भी अपने बयान में कहा - मुझसे तो खुल के बात ही नहीं की। नहीं तो मैं ऐसा करने देता " .
पुलिस अपनी कागजी कार्यवाही निपटा के मुट्ठी गर्म करवा जा रही थी कि छोटी निष्ठा चिल्लाई।_ " पापा ने कल भी मारा। परसों भी। "
इंस्पेक्टर ने जाते जाते पीछे मुड़ कर देखा तो अमरीक दोहरा हो गया। - " बच्ची है जी घबराई पड़ी है। "
दादी निष्ठा को लगभग घसीटते अंदर स्टोर में ले गई थी - " चुप बिलकुल चुप ! माँ तो गई। बाप को जेल भेजना चाहती है तू। दोबारा अवा तवा बोली तो गला घोट के रख दूँगी। समझी। "
लोग धीरे धीरे घर लौट गए थे। बात थम सी गई थी कि एकदिन सुस्मिता मौका देखते ही बाहर आ सीधे गली में बैठी औरतों के गोल में घुसी। बिना सांस लिए बोली - " माँ मामा के घर नहीं जा रही थी न तो पापा ने रात को बहुत मारा था। माँ रोते रोते सूसू करने गई। बड़ी देर वापस ही नहीं आई तो पापा ने तेल डाल के तीली भी फैंक दी थी आग लग गई थी जोर की। माँ मर गई। "
भल्लाइँन ने सुस्मिता को लगभग साथ भींच लिया था - " न मेरी बच्ची ऐसी बात नहीं करते। तेरी दादी या बाप ने सुन लिया तो मारेंगे तुझे। हमारे साथ लड़ाई होगी वो अलग। किसी से मत कहियो बच्ची "
लेकिन अगले ही दिन सुस्मिता की बात की पुष्टि हो गई जब अमरीक एक बच्चे समेत एक औरत को घर ले आया। शादी तो दो साल पहले किसी मन्दिर में कर चूका था। घर लाना बाकी था वह भी हो गया।
अमरीक की माँ ने इस बहु का स्वागत सादगी से ही किया था। दोनों बेटियां चुपचाप देखती रही थी। बाप से तो पहले ही सम्वाद कम था। अब खत्म सा हो गया।
सास ने मौहल्ले को खबर दी थी इन शब्दों में - बेचारा मर्द। क्या करता बेचारा। दो बेटियां जन दी थी। बेटा तो चाहिए था न। हमने तो बथेरा कहा . भई तू भी रह आराम से वो भी रहेगी। मानी ही नहीं मर के सुखी हो गई "
अब ये पत्थर हमे ही सम्भालने है।"
और अगले दिन ही चौदह साल की सुस्मिता किसी रिक्शावाले के साथ भाग गई। मरनेवाली का गन्दा खून जो थी। पत्थर थी पत्थर।
गुरुवार, 26 जनवरी 2017
राखी के घर से अक्सर उसके माँ और पिताजी की लड़ाई की ख़बरें आती रहती . सामान्य बहस से शुरू हुई बात पिताजी द्वारा मारपीट ,माँ के रोने धोने तक पहुँच जाती . पिताजी अंत में बाहर निकल जाते .तो माँ का गरियाना शुरू हो जाता - ये लड़की तो सौत है सौत . सुन कर हैरानी होती कोई बेटी माँ की अपनी माँ की सौत ? ऐसा गजब भी कहीं हुआ है ?
एक दिन राखी घर आई तो मैंने प्रश्न की नजरों से देखा -
राखी ने जो उत्तर दिया वह तो और भी हैरान करने वाला था - ये औरत तो है ही इसी काबिल . आने दे पिताजी को बता दूँगी इसने सारा दूध उबाल दिया दूध साफ़ करने लगी तो चीनी का डिब्बा भी उल्टा दिया .
फिर ?
फिर क्या पिताजी फिर पीटेंगे . मज़ा आएगा .
ऐसा ?
हाँ मै तो रोज ही करती हूँ .जिस दिन बिना बात डांटती है , उस दिन तो दो बार . कभी तो सुधरेगी .
माँ ने राखी को डांट के भगा दिया था मुझे हिदायत मिली थी ऐसी बदतमीज लडकी से दूर रहने की .
माँ राम राम कहती अन्दर चली गयी थी .दादी को कह रही थी - लड़की बिगाड़ दी दादी ने . शुरू शुरू में अपनी बात को सही करने के लिए इस लडकी को गवाह बनाती थी ताकि मियां बीबी में झगड़ा करवा सके . अब दादी मर गई तो पोती ने राम कटोरी का जीना दूभर कर रखा है भला ऐसी भी होती है बेटियां ?
दादी ने पता नही क्या कहा क्या नहीं ?
पर राम कटोरी के रोने की आवाज अब तक आ रही थी
एक दिन राखी घर आई तो मैंने प्रश्न की नजरों से देखा -
राखी ने जो उत्तर दिया वह तो और भी हैरान करने वाला था - ये औरत तो है ही इसी काबिल . आने दे पिताजी को बता दूँगी इसने सारा दूध उबाल दिया दूध साफ़ करने लगी तो चीनी का डिब्बा भी उल्टा दिया .
फिर ?
फिर क्या पिताजी फिर पीटेंगे . मज़ा आएगा .
ऐसा ?
हाँ मै तो रोज ही करती हूँ .जिस दिन बिना बात डांटती है , उस दिन तो दो बार . कभी तो सुधरेगी .
माँ ने राखी को डांट के भगा दिया था मुझे हिदायत मिली थी ऐसी बदतमीज लडकी से दूर रहने की .
माँ राम राम कहती अन्दर चली गयी थी .दादी को कह रही थी - लड़की बिगाड़ दी दादी ने . शुरू शुरू में अपनी बात को सही करने के लिए इस लडकी को गवाह बनाती थी ताकि मियां बीबी में झगड़ा करवा सके . अब दादी मर गई तो पोती ने राम कटोरी का जीना दूभर कर रखा है भला ऐसी भी होती है बेटियां ?
दादी ने पता नही क्या कहा क्या नहीं ?
पर राम कटोरी के रोने की आवाज अब तक आ रही थी
मंगलवार, 24 जनवरी 2017
बुआ ज्वाली नहीं रही। अचानक उनके स्वर्गवास की खबर मिली। हैरान करने वाली बात ये नहीं थी कि वे चली गई बल्कि ये कि उनका नाम ज्वाली नहीं था, ज्वाली उनका मायके का कस्बा था। वे इस मौहल्ले की बेटी नहीं बहु थी .उनका असली नाम उमा था। . पिछले पचास साल से बहु नहीं बेटी का रुतबा पाकर जिस घर में रह रही थी वह उनका ससुराल था जिसे सब भैयाजी कहते थे वे उनके पति थे।
एक साथ इतने सारे खुलासों ने दिमाग की दही जमा दी थी। सब कुछ सुन्न। मन एक भी बात पर विश्वास करने को तैयार ही नहीं था पर जब अर्थी पर आरूढ़ बुआ की मांग में सिंदूर डाल उन्हें घर से विदा किया गया तो अविश्वास का कोई कारण ही नहीं रह गया था।
बुआ की शादी चौदह साल की उम्र में भैयाजी से हुई और तीन साल बाद गौना। जब गौने के बाद वे ससुराल आई भैयाजी वकालत पढ़ रहे थे। बुआ घर के काम में बेहद कुशल ,सीना पिरोना , बुनाई सिलाई , लीपना पकाना राँधना हर काम वे जिस सफाई से करती देखने वाले देखते रह जाते। खाना परोसती तो खाने वाले उँगलियाँ चाटते रह जाते। सास ससुर की आँख का तारा थी उमा। पर बैरिस्टर पति को हरदम हल्दी मसाले से गंधाती अनपढ़ बीबी कभी पसन्द नहीं आई। उस पर खुदा का कहर कि शादी के आठ साल बाद भी वे माँ नहीं बन पाई। एक दिन सब को हैरान करते हुए भैयाजी ने अपनी स्टेनो से शादी कर गृह प्रवेश किया तो घर में कोहराम मच गया। बाबूजी की गालियां ,माताजी का रोना , पड़ोसियों का जमाने को गरियाना दो तीन महीने से कम तो क्या चला होगा। फिर धीरे धीरे सब सामान्य हो गया। नई दुल्हन भी घर का हिस्सा हो गई। इस सब में जो धरती जैसी अचल रही वो थी बुआ.. जैसे वह यह सब पहले से जानती थी जैसे यह तो होना ही था। उसी भाव से रसोई सम्भाले रही। सास जब तब गले लगा कर रो पड़ती। पगली सिर्फ चौबीस साल की उम्र में सौत का दुःख कैसे सहेगी कैसे कटेगी पहाड़ जैसी जिंदगी पर उमा की आँखों से एक बूँद भी टपकी हो मजाल है।
एक दिन खबर पा उमा के दोनों भाई आये तो उमा ने कुछ कहने से बरज दिया साथ जाने से भी इनकार कर दिए . दोनों भाई बैरंग लौट गए
उस दिन से उमा सास की बेटी हो गई अकेली सास नहीं पूरे मौहल्ले की बेटी हो गई और सब बच्चों की बुआ। की बहुएं आदर से बुआ कहती तो बुआ ज्वाली की आशीषों का दरिया बाह जाता। सब पर प्यार लुटाया। सब से आदर पाया ऐसी बुआ को देख कर भैयाजी को कभी ग्लानि हुई हो ,जान्ने का कोई साधन मेरे पास नहीं है
सोमवार, 23 जनवरी 2017
ye aurten: उनको जब मैंने देखा ,तब वे उम्र के उस मोड़ पर थीं ज...
ye aurten:
उनको जब मैंने देखा ,तब वे उम्र के उस मोड़ पर थीं ज...: उनको जब मैंने देखा ,तब वे उम्र के उस मोड़ पर थीं जब पत्ते पीले पड़ने की ,नदी किनारे का पेड़ होने की बात कहना शुरू हो जाता है। उनसे मेरा परिच...
उनको जब मैंने देखा ,तब वे उम्र के उस मोड़ पर थीं ज...: उनको जब मैंने देखा ,तब वे उम्र के उस मोड़ पर थीं जब पत्ते पीले पड़ने की ,नदी किनारे का पेड़ होने की बात कहना शुरू हो जाता है। उनसे मेरा परिच...
उनको जब मैंने देखा ,तब वे उम्र के उस मोड़ पर थीं जब पत्ते पीले पड़ने की ,नदी किनारे का पेड़ होने की बात कहना शुरू हो जाता है। उनसे मेरा परिचय कराते बड़ी भाभी ने कहा - ये हमारी मामी है और मैंने झुक उनके पैर छू लिए थे। जवाब में ढेर सा आशीर्वाद मिला था और साथ ही मिली थी खजूर। कुछ अजीब सा लगा था। यह पहला घर था जहाँ किसी ने न पानी पूछा था न चाय। पर बिना कुछ पूछे रह गई थी। लेकिन शंका का आधा समाधान बाहर आते ही जीतो चाची ने कर दिया था -' मुगलानी मामी से मिल के आ रही हो। "
' जी चाची '
ये कहानी तो मजेदार हो चली थी सो दो दिन बाद ही मैं बहाने से मामी के आंगन में पहुँच गई थी। मामी मिलके बहुत खुश हुई थी पर मुगलानी की कहानी पर चुप लगा गई - " ऐसे ही कह लेते है लोग मजाक मजाक में। मेरा नाम तो जनको है बिटिया जो तेरी नानी लेती थी। तेरे मामे ने तो वैसे ही सार लिया बिना नाम लिए। अब तो ऊपर बैठा पछता रहा होगा के एक बार भी नाम नहीं लिया।" मामी के झुर्रियों भरे चेहरे पर केसर बिखर गया पर पहेली अनसुलझी रह गई।
फिर एक दिन बातों बातों में पता चला कि जब रौले पड़े थे (विभाजन ) तब दोनों तरफ बड़ा कत्लेआम हुआ था हर गांव से ढूंढ कर विधर्मी मारे जा रहे थे पाकिस्तान में भी और हिन्दोस्तान में भी। उधर जितने मारे जाते इधर भी उतने जाते। एक जूनून सा सवार था लोगों पर हवा दे रहे थे नेता। उसी पागलपन का शिकार यह छोटा सा शहर भी हुआ था। जब एक ट्र्क भरा लाशों का इस शहर पहुंचा था बदले में शहर के सिख और जट्ट भी नँगी किरपानें लेकर सड़कों पर उतर आये। लाशों के ढेर लग गए। उन्हीं में से एक था जुनैद का परिवार। उसके अब्बू ,अम्मी ,खाला ,फूफी ,दोनों भाई सब मार दिए गए थे। जुनैद एक चारे की भरी के पीछे छिपी थी वहीँ बेहोश हो गई थी। उसी जुनूनी भीड़ में था राम मामा जो तब मुश्किल से बीस साल का था उस तेरह साल की खूबसूरत सी ,मासूम सी बच्ची की खूबसूरती ने कील लिया था और वह चिल्लाया था -न ओये इसनूं नहीं "
सारे उस माहौल में भी हँस पड़े थे। करतारे ताये ने कहा था - जा ओये ! तैनू दिती।
राम जुनेद को घर ले आया था माँ ने उसे गंगा जल से नहला के जानकी लिया और इस तरह जनको बन गई जानकी जो धीरे धीरे गीता पाठ भी सीख गई और रामायण पढ़ना भी। मुगलानी मामी भी कहलाई पूरी वफ़ादारी के साथ।
रविवार, 22 जनवरी 2017
मेरी क्लास में सबसे पीछे की सीट जो एक कोने में रखी रहती हमेशा रिजर्व थी जहाँ बाकी सब लडकियाँ अपनी अपनी सीट के लिए भागती दौड़ती आती ,लेट होने पर अक्सर सीट छिन जाती , वहां वह कुर्सी हमेशा आने वाली का इन्तजार करती खाली पड़ी रहती . जब सब लड़कियां अपने बैग अपनी कुर्सी पर टिका कर प्रार्थना के लिए चली जाती ,तब वह डरते डरते क्लास में आती . चुपके से कुर्सी पर बैठ बस्ता गोद में लेती .उसके बाद तभी उठती जब छुट्टी होने पर सारी लड़कियां घर चली जाती . आधी छुट्टी में शारदा और शशि उसके लिए लायी रोटी जरूर उसे देने जाती . कक्षा परीक्षा में भी वह अपना लिखा खुद ही पद कर सुना देती और सुन कर दीदीजी नम्बर लगा लेती जबकि हमारी कापियां वे साथ ले जाती .एक एक अक्षर पढ़ती तब जा कर नम्बर मिलते और नम्बरों से ज्यादा डांट मिलना पक्का तो था ही .सो नौरती से ईर्ष्या तो बनती ही थी न . इसलिए मन ही मन उससे जलन होने लगी थी . हूँ क्या किस्मत है . न सीट की चिंता ,न टिफिन लाने की न कापियां जचवाने की मौज ही मौज है महारानी की
और एक दिन ये सब अपने से दो क्लास आगे वाली वीना दीदी को कह ही दिया तो उन्होंने कानों को हाथ लगा ईश्वर से माफ़ी माँगी . मुझसे भी आकाश की ओर हाथ जुडवा माफ़ी मंगवाई - पागल हुई हो क्या ? तभी ऐसी बातें सूझ रही हैं . कुछ जानती भी हो अरे वो मैला ढोते है न रमई और बिज्जू उनकी बेटी है नौरती . ये तो प्रधानजी इसकी फ़ीस भर रहे हैं .बड़ी दीदी इसको किताबे दिलाती हैं इसलिए स्कूल आ पाती है वर्ना माँ के साथ मैला ढो रही होती .
सचमुच उस दिन अपनेआप पर शर्म आई .घर आकर मैंने ठाकुर जी का धन्यवाद दिया माफ़ी मांगी नौरती के लिए कुछ पेन पेन्सिल निकाले और सुबह उसे देते हुए सौरी बोला तो वो हैरान परेशान हो गई .-
क्या हुआ ?
कुछ नहीं .ऐसे ही .
नौरती मेरे साथ आठवी तक रही उसके बाद उसका क्या हुआ जानने का कोई साधन नहीं है .पर अपनी कापी से पढ़ कर सुनाती वह मुझे आज भी सपने में दिख जाती है
और एक दिन ये सब अपने से दो क्लास आगे वाली वीना दीदी को कह ही दिया तो उन्होंने कानों को हाथ लगा ईश्वर से माफ़ी माँगी . मुझसे भी आकाश की ओर हाथ जुडवा माफ़ी मंगवाई - पागल हुई हो क्या ? तभी ऐसी बातें सूझ रही हैं . कुछ जानती भी हो अरे वो मैला ढोते है न रमई और बिज्जू उनकी बेटी है नौरती . ये तो प्रधानजी इसकी फ़ीस भर रहे हैं .बड़ी दीदी इसको किताबे दिलाती हैं इसलिए स्कूल आ पाती है वर्ना माँ के साथ मैला ढो रही होती .
सचमुच उस दिन अपनेआप पर शर्म आई .घर आकर मैंने ठाकुर जी का धन्यवाद दिया माफ़ी मांगी नौरती के लिए कुछ पेन पेन्सिल निकाले और सुबह उसे देते हुए सौरी बोला तो वो हैरान परेशान हो गई .-
क्या हुआ ?
कुछ नहीं .ऐसे ही .
नौरती मेरे साथ आठवी तक रही उसके बाद उसका क्या हुआ जानने का कोई साधन नहीं है .पर अपनी कापी से पढ़ कर सुनाती वह मुझे आज भी सपने में दिख जाती है
शुक्रवार, 20 जनवरी 2017
मेरी अध्यापिका थी . बिलकुल सादी वेशभूषा . बार्डर वाली सफेद साडी .जिसका बार्डर तो बदल जाता पर साडी वही रहती .मुड़ी तुड़ी , बिखरी सी . खिचड़ी बालों को कस कर लपेट कर दो सुइयां खोस लेती तो चेहरा और भी रोबदार लगता .हालात ने उन्हें उम्र से पहले बूढा बना दिया था . पर जब वे आँखें बंद कर पढाना शुरू करती तो अधिकांश मंत्रमुग्ध हो सुनते रहते .
सिलेबस की सभी कवितायें उन्हें कंठस्थ थी . व्याकरण उनकी जीभ की नोक पर धरा था . स्वभाव से एकदम कडक पर सब बच्चों की मदद करते भी मैंने उन्हें देखा है .जिस दिन नहीं आती उस दिन सब सूना रहता .
थोडा बड़े हुए तो जाना कि वे बनारस के किसी नामी वकील की चार बेटियों में से एक थी . उनके पति मैथ्स में पी एच डी थे और डिग्री कालेज में व्याख्याता .पर मैथ करते करते दिमागी संतुलन गंवा बैठे .अब शहर की सडकों में भटकते गणित की पहेलियाँ हल किया करते हैं . मायके और ससुराल के बहुत से लोगों ने समझाया कि तलाक लेकर नया घर बसा लो पर उनहोंने नहीं माना .स्कूल से छुटते ही खोजने निकल पड़ती है . और ढूढ़ कर जैसे तैसे घर लाकर नहलाना ,खिलाना सुलाना सब पूरी इमानदारी से साड़ी जिन्दगी निभाया उनहोंने . सुन कर मन श्रद्धा से भर उठा .आज के इस स्वार्थ के संसार में कोई इतना निस्वार्थ कैसे हो सकता है
सिलेबस की सभी कवितायें उन्हें कंठस्थ थी . व्याकरण उनकी जीभ की नोक पर धरा था . स्वभाव से एकदम कडक पर सब बच्चों की मदद करते भी मैंने उन्हें देखा है .जिस दिन नहीं आती उस दिन सब सूना रहता .
थोडा बड़े हुए तो जाना कि वे बनारस के किसी नामी वकील की चार बेटियों में से एक थी . उनके पति मैथ्स में पी एच डी थे और डिग्री कालेज में व्याख्याता .पर मैथ करते करते दिमागी संतुलन गंवा बैठे .अब शहर की सडकों में भटकते गणित की पहेलियाँ हल किया करते हैं . मायके और ससुराल के बहुत से लोगों ने समझाया कि तलाक लेकर नया घर बसा लो पर उनहोंने नहीं माना .स्कूल से छुटते ही खोजने निकल पड़ती है . और ढूढ़ कर जैसे तैसे घर लाकर नहलाना ,खिलाना सुलाना सब पूरी इमानदारी से साड़ी जिन्दगी निभाया उनहोंने . सुन कर मन श्रद्धा से भर उठा .आज के इस स्वार्थ के संसार में कोई इतना निस्वार्थ कैसे हो सकता है
रविवार, 15 जनवरी 2017
meri parnaani
परनानी
वे मेरी पड़ नानी थी। सामान्य मंझोला कद। कुछ कुछ सांवला रंग , चेहरा साधारण सिवाए बड़ी आँखों के आधे सफेद आधे काले बाल कुल मिला कर एक सामान्य भारतीय महिला पर इसके बावजूद कुछ तो था जो उन्हें भीड़ से अलग बनाता था।
चेहरे पर एक अलौकिक तेज था जो देखने वाले को अभिभूत कर देता। एकदम रिन की चमकार वाली सफेद साड़ी ,बन्द गले का कुर्ती नुमा ब्लाउज उनकी पसन्दीदा पोशाक थी वे अक्सर इसी में नज़र आती। हाथ में तुलसी की माला लिपटी रहती और माथे पर चन्दन की गोल बिंदी। मैंने जब भी उन्हें देखा इसी रूप में देखा।
नौ साल की थी कि दुल्हन बन ससुराल आ गयी। उनके पति तब मैट्रिक कर रहे थे खुद को पति के काबिल बनाने के लिए उन्होंने कुछ पति से सीखा तो कुछ सास से। थोड़े ही दिनों में रामचरित मानस ,गीता ,भागवत का शुद्ध पाठ भी करने लगी और लगे हाथ आठवीं की परीक्षा भी पास कर ली। इस बीच पड़ नाना स्टेशन मास्टर हो गए। दिन ऐश से बीत रहे थे कि रेल हादसा हो गया रेल डिब्बा उलटने से दो लोगों की मौत हो गयी। अंग्रेज सरकार का जमाना था , सजा में काले पानी की सजा मिली। वह भी अफ्रीका के जंगल में .. नाना को जाना पड़ा।पीछे रह गई पड़नानी अपने दो लड़कों के साथ। जितना पैसा हाथ में था उससे मुश्किल से पांच महीने निकले। उसके बाद गुजारे की समस्या सामने थी उनहोंने पर्दा उतार फैंक दिया कमर कस ली किसी से मदद नहीं लेंगी न मायके से ,न ससुराल से। घर के ठाकुर जी को ही अपना सहारा बनाया। और अपनी हँसुली बेच जन्माष्टमी का आयोजन किया झांकी सजा आस पास वालों को दर्शन के लिए आमन्त्रित किया। लोगों ने दर्शन किये तो खो गए और लोग कहते हैं कि जन्माष्टमी के दिन तक तो कतारें लग गयी थी। नानी भागवत बांचती तो लोग निहाल हो जाते। बीच बीच में आज़ादी की जरुरत पर भी चर्चा होती। पर मुख्य ये कि बच्चों के खाने के साथ साथ उनकी इंटर तक की पढ़ाई भी हो गई। इस तरह बारह बरस बीत गए। और एक दिन देश आज़ाद हो गया। साथ ही आई विभाजन की आंधी लोग धड़ाधड़ पाकिस्तान वाली धरती छोड़ हिंदूस्तान आने लगे नानी की हवेली जो अब अफ्रीका वालों की हवेली कही जाने लगी थी ,में सात परिवारों ने शरण ली थी जिनका एक महीने तक खर्च पड़नानी ने ही उठाया। इसी बीच अंग्रेज सरकार ने अपने सभी आदेश वापिस लेकर कैदियों को रिहा कर दिया। पड़ नाना अंग्रेज सरकार ने यह अधिकार दिया कि वे चाहे तो भारत लौट जाएँ अथवा तंजानिया में जहाँ उन्होंने जंगल साफ़ करवा कर जमीन बनवाई है वहां खेती कर सकते हैं। पड़ नाना ने अफ्रीका चुना और नानी को लेने भारत आये पर पड़नानी ने देश छोड़ने से इंकार कर दिया। पड़नाना बोझिल मन से बड़े बेटे को लेकर लौट गए पर पत्नी को नहीं मन सके। इसके बाद वे हर साल भारत आते रहे।
पड़नानी एक सौ दस साल तक जीवित रही। एकदम स्वस्थ ,चैतन्य ,जिंदगी से भरपूर। जो चोपड़ की महफ़िल उनहोंने बीस साल की उम्र में शुरू की थी वह उनके मरने वाले दिन तक तीन से पांच तक बदस्तूर जारी रही और ठाकुर जी पूजा आरती भी। एक दिन सन्ध्या आरती के बाद प्रसाद ग्रहण करके उनहोंने देह त्याग किया
पूरी जिंदगी जीवट से जीने वाली यह महिला क्या साधारण थी
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