शनिवार, 21 सितंबर 2019

सोच का संकट




सोचा था
उडूँगी इस अनंत नभ में
छोटी सी गौरेया बन कर
आकांक्षाओं के बादलों पर सवार होकर
सारी ताकत भर डैनों में
उम्मीदें होंगी स्वतंत्र
बंधन की न होगी चिंता
न भीड़भाड़ का डर
कहीं भी रुकूँगी
कुछ भी करुँगी
नहीं होगा कोई पहरा
पर भूल गई थी
शहर में होते हैं शिकारी
बहेलिये और बाज
कभी कभी कौए भी
जो झपट कर नोच लेते हैं पंख
लहुलुहान कर देते हैं तन और मन दोनों
जख्मी कर देते हैं सीना
तब
याद कहाँ रहता है आकाश
आकाश की ऊँचाइयाँ
तब किसी पाताली गुफा का अन्धकार ही नियति बन जाता है
या कोई पिंजरा ही
सबसे सुरक्षित
होने का अहसास
जगा जाता है
खुद से भरोसा ही उठ जाता है