रविवार, 29 जनवरी 2017




 पत्थर 




सुस्मिता  की माँ का देहांत जिन हालात में हुआ कोई भी दहल सकता था। फिर सुस्मिता का तो कहना ही क्या ?
उसकी माँ ने रात के दो बजे घर के बाहर बने पर्दे वाले बिना छत के गुसलखाने में आग लगा कर आत्महत्या कर ली थी।  माँ की चीखें देर तक हवा में गूंजती रही थी पर माँ दो मिनट में ही राख के ढेर में बदल गई।  सोये लोग हड़बड़ा कर उनके घर के आंगन की ओर  भागे थे।  जगह जगह झुण्ड बना कर चर्चा में लीन थे।
 दुबली पतली सी ,साँवली सलोनी, एकदम से शान्त ,मीरा ऐसा कैसे कर सकती है।  सब सोच में पड़े थे। उसके बाद कोई नहीं सोया था।
 दो घंटे बाद पुलिस आई थी।  ब्यान हुए।  सास ने कहा -जिस दिन से छोटी बेटी हुई उसी दिन से गुमसुम रहती थी जी हम तो बहुत समझाते थे पर गम को दिल से लगा ये  कारा कर गई।  "
पति ने भी अपने बयान में कहा - मुझसे तो खुल के बात ही नहीं की।  नहीं तो मैं ऐसा करने देता " .
 पुलिस अपनी कागजी कार्यवाही निपटा के मुट्ठी गर्म करवा जा रही थी कि छोटी निष्ठा चिल्लाई।_ "   पापा ने कल भी मारा। परसों भी। "
 इंस्पेक्टर ने जाते जाते पीछे मुड़ कर देखा तो अमरीक दोहरा हो गया। - "  बच्ची है जी घबराई पड़ी है।   "
 दादी निष्ठा को लगभग घसीटते अंदर स्टोर में ले गई थी - " चुप बिलकुल चुप ! माँ तो गई। बाप को जेल भेजना चाहती है तू। दोबारा अवा तवा बोली तो गला घोट के रख दूँगी। समझी। "
लोग धीरे धीरे घर लौट गए थे।  बात थम सी गई थी कि एकदिन सुस्मिता मौका देखते ही बाहर आ सीधे गली में बैठी औरतों के गोल में घुसी।  बिना सांस लिए बोली -  " माँ मामा के घर नहीं जा रही थी न तो पापा  ने रात को बहुत मारा  था।  माँ रोते रोते सूसू करने गई। बड़ी देर वापस ही नहीं आई तो पापा  ने तेल डाल के तीली भी फैंक दी थी आग लग गई थी जोर की।  माँ मर गई। "
भल्लाइँन ने सुस्मिता को लगभग साथ भींच लिया था - " न मेरी बच्ची ऐसी बात नहीं करते।  तेरी दादी या बाप ने सुन लिया तो मारेंगे तुझे। हमारे साथ लड़ाई होगी वो अलग।  किसी से   मत कहियो बच्ची "
लेकिन अगले ही दिन सुस्मिता  की  बात की पुष्टि हो गई जब अमरीक एक बच्चे समेत एक औरत को  घर ले आया।  शादी तो दो साल पहले किसी मन्दिर में कर चूका था।  घर लाना बाकी था वह भी हो गया।
अमरीक की माँ ने इस बहु का स्वागत सादगी से ही किया था।  दोनों बेटियां चुपचाप देखती रही थी।   बाप से तो पहले ही सम्वाद कम था।  अब खत्म सा हो गया।
सास ने मौहल्ले को खबर दी थी इन शब्दों में - बेचारा मर्द।  क्या करता बेचारा।  दो बेटियां जन दी थी। बेटा तो चाहिए था न।  हमने तो बथेरा कहा .  भई तू भी रह आराम से वो भी रहेगी। मानी ही नहीं मर के सुखी हो गई "
अब ये पत्थर हमे ही  सम्भालने है।"
 और अगले दिन ही चौदह साल की सुस्मिता  किसी  रिक्शावाले के साथ भाग गई।  मरनेवाली का गन्दा खून जो थी। पत्थर थी पत्थर।

गुरुवार, 26 जनवरी 2017

राखी के घर से अक्सर उसके माँ और पिताजी की लड़ाई की ख़बरें आती रहती . सामान्य बहस से शुरू हुई बात पिताजी द्वारा मारपीट ,माँ के रोने धोने तक पहुँच जाती . पिताजी अंत में बाहर निकल जाते .तो माँ का गरियाना शुरू हो जाता - ये लड़की तो सौत है सौत . सुन कर हैरानी होती कोई बेटी माँ की अपनी माँ की सौत ? ऐसा गजब भी कहीं हुआ है ?
एक दिन राखी घर आई तो मैंने प्रश्न की नजरों से देखा -
राखी ने जो उत्तर दिया वह तो और भी हैरान करने वाला था - ये औरत तो है ही इसी काबिल . आने दे पिताजी को बता दूँगी इसने सारा दूध उबाल दिया दूध साफ़ करने लगी तो चीनी का डिब्बा भी उल्टा दिया .
फिर ?
फिर क्या पिताजी फिर पीटेंगे . मज़ा आएगा .
ऐसा ?
हाँ मै तो रोज ही करती हूँ .जिस दिन बिना बात डांटती है , उस दिन तो दो बार . कभी तो सुधरेगी .
माँ ने राखी को डांट के भगा दिया था मुझे हिदायत मिली थी ऐसी बदतमीज लडकी से दूर रहने की .
माँ राम राम कहती अन्दर चली गयी थी .दादी को कह रही थी - लड़की बिगाड़ दी दादी ने . शुरू शुरू में अपनी बात को सही करने के लिए इस लडकी को गवाह बनाती थी ताकि मियां बीबी में झगड़ा करवा सके . अब दादी मर गई तो पोती ने राम कटोरी का जीना दूभर कर रखा है भला ऐसी भी होती है बेटियां ?
दादी ने पता नही क्या कहा क्या नहीं ?
पर राम कटोरी के रोने की आवाज अब तक आ रही थी 



मंगलवार, 24 जनवरी 2017


बुआ ज्वाली नहीं रही।  अचानक उनके स्वर्गवास की खबर मिली।  हैरान करने वाली बात ये नहीं थी कि वे चली गई बल्कि ये कि उनका नाम ज्वाली नहीं था, ज्वाली उनका मायके का कस्बा था।  वे इस मौहल्ले की  बेटी नहीं  बहु थी  .उनका असली नाम उमा था।   .  पिछले पचास साल  से   बहु  नहीं बेटी का रुतबा पाकर जिस घर में रह रही थी  वह उनका ससुराल  था जिसे सब भैयाजी कहते थे वे उनके पति थे।
एक साथ इतने सारे खुलासों ने दिमाग की दही जमा दी थी।  सब कुछ सुन्न। मन एक भी बात पर विश्वास करने को तैयार ही नहीं था पर जब अर्थी पर आरूढ़ बुआ की मांग में सिंदूर डाल उन्हें घर से विदा किया गया तो अविश्वास का कोई कारण ही नहीं रह गया था।
बुआ की शादी चौदह साल की उम्र में भैयाजी से हुई और तीन साल बाद गौना।  जब गौने के बाद वे ससुराल आई भैयाजी वकालत पढ़ रहे थे।  बुआ घर के काम में बेहद कुशल ,सीना  पिरोना , बुनाई सिलाई , लीपना  पकाना राँधना हर काम वे जिस सफाई से करती देखने वाले देखते रह जाते।  खाना परोसती तो खाने वाले उँगलियाँ चाटते रह जाते।  सास ससुर की आँख का तारा थी उमा। पर बैरिस्टर  पति को हरदम  हल्दी  मसाले से गंधाती अनपढ़ बीबी कभी पसन्द नहीं आई। उस  पर  खुदा का कहर कि शादी के आठ साल बाद भी वे माँ नहीं बन पाई।  एक दिन  सब को हैरान करते हुए भैयाजी ने अपनी स्टेनो से शादी  कर गृह प्रवेश किया तो घर में कोहराम मच गया।  बाबूजी की गालियां ,माताजी का रोना , पड़ोसियों का जमाने को गरियाना दो तीन महीने से कम तो क्या चला होगा।  फिर धीरे धीरे सब सामान्य हो गया। नई दुल्हन भी घर का हिस्सा हो गई। इस सब में जो धरती जैसी अचल रही वो थी बुआ..  जैसे   वह यह सब पहले से जानती   थी  जैसे यह तो होना ही था।  उसी भाव से रसोई सम्भाले रही।  सास जब तब गले लगा कर रो पड़ती। पगली सिर्फ चौबीस साल की उम्र में सौत का दुःख कैसे सहेगी कैसे कटेगी पहाड़ जैसी जिंदगी पर उमा की आँखों से एक बूँद भी टपकी हो मजाल है।
एक दिन खबर पा उमा के  दोनों भाई आये तो उमा ने कुछ कहने से बरज दिया साथ जाने से भी इनकार कर दिए  . दोनों भाई बैरंग लौट गए
उस दिन से उमा सास की बेटी हो गई अकेली सास  नहीं पूरे मौहल्ले की बेटी हो गई और सब बच्चों की बुआ।  की बहुएं आदर से बुआ कहती तो बुआ ज्वाली की आशीषों का दरिया बाह जाता।  सब पर प्यार लुटाया।  सब से आदर पाया  ऐसी बुआ को देख कर भैयाजी को कभी ग्लानि हुई हो ,जान्ने का कोई साधन मेरे पास नहीं है 

सोमवार, 23 जनवरी 2017

ye aurten: उनको जब मैंने देखा ,तब वे उम्र के उस मोड़ पर थीं ज...

ye aurten:
उनको जब मैंने देखा ,तब वे उम्र के उस मोड़ पर थीं ज...
: उनको जब मैंने देखा ,तब वे उम्र के उस मोड़ पर थीं जब पत्ते पीले पड़ने की ,नदी किनारे का पेड़ होने की बात कहना शुरू हो जाता है।  उनसे मेरा परिच...

उनको जब मैंने देखा ,तब वे उम्र के उस मोड़ पर थीं जब पत्ते पीले पड़ने की ,नदी किनारे का पेड़ होने की बात कहना शुरू हो जाता है।  उनसे मेरा परिचय कराते बड़ी भाभी ने कहा - ये हमारी मामी है और मैंने झुक  उनके पैर छू लिए थे।  जवाब में ढेर सा आशीर्वाद मिला था और साथ ही मिली थी खजूर।  कुछ अजीब सा लगा था।  यह पहला घर था जहाँ किसी ने न पानी पूछा था न चाय।  पर बिना कुछ पूछे रह गई थी। लेकिन  शंका का आधा समाधान बाहर आते ही जीतो चाची ने कर दिया था -' मुगलानी मामी से मिल के आ रही हो। "
' जी चाची '
ये कहानी तो मजेदार हो चली थी सो दो दिन बाद ही मैं बहाने से मामी के आंगन में पहुँच गई थी।  मामी मिलके बहुत खुश हुई थी पर मुगलानी की कहानी पर चुप लगा गई - " ऐसे ही कह लेते है लोग मजाक मजाक में।  मेरा नाम तो जनको है बिटिया जो तेरी नानी लेती थी। तेरे मामे ने तो वैसे ही सार लिया बिना नाम लिए।  अब तो ऊपर बैठा पछता रहा होगा के एक बार भी  नाम नहीं लिया।" मामी के झुर्रियों भरे चेहरे पर केसर बिखर गया पर पहेली अनसुलझी रह गई।
फिर एक दिन बातों बातों में पता चला कि जब रौले पड़े थे (विभाजन ) तब दोनों तरफ बड़ा कत्लेआम हुआ था हर गांव से ढूंढ कर विधर्मी मारे जा रहे थे पाकिस्तान में भी और हिन्दोस्तान में भी।  उधर जितने मारे जाते इधर भी उतने  जाते।  एक जूनून सा सवार था लोगों पर हवा दे रहे थे नेता।  उसी पागलपन का शिकार यह छोटा सा शहर भी हुआ था।  जब एक ट्र्क भरा लाशों का इस शहर पहुंचा था बदले में शहर के सिख और जट्ट भी नँगी किरपानें लेकर सड़कों पर उतर आये।  लाशों के ढेर लग गए। उन्हीं में से एक था जुनैद का परिवार। उसके अब्बू ,अम्मी ,खाला ,फूफी ,दोनों भाई सब मार दिए गए थे।  जुनैद एक चारे की भरी के पीछे छिपी थी वहीँ बेहोश हो गई थी।  उसी जुनूनी भीड़ में था राम मामा जो तब मुश्किल से बीस साल का था उस तेरह साल की खूबसूरत सी ,मासूम सी बच्ची की खूबसूरती ने कील लिया था और वह चिल्लाया था -न ओये इसनूं नहीं "
सारे उस माहौल में भी हँस पड़े थे।  करतारे ताये ने कहा था - जा ओये ! तैनू दिती।
राम जुनेद को घर ले आया था माँ ने उसे गंगा जल से नहला के जानकी  लिया और इस तरह जनको बन गई जानकी जो धीरे धीरे गीता  पाठ भी सीख गई और रामायण पढ़ना भी। मुगलानी मामी भी कहलाई पूरी वफ़ादारी के साथ।
  

रविवार, 22 जनवरी 2017

मेरी क्लास में सबसे पीछे की सीट जो एक कोने में रखी रहती हमेशा रिजर्व थी जहाँ बाकी सब लडकियाँ अपनी अपनी सीट के लिए भागती दौड़ती आती ,लेट होने पर अक्सर सीट छिन जाती , वहां वह कुर्सी हमेशा आने वाली का इन्तजार करती खाली पड़ी रहती . जब सब लड़कियां अपने बैग अपनी कुर्सी पर टिका कर प्रार्थना के लिए चली जाती ,तब वह डरते डरते क्लास में आती . चुपके से कुर्सी पर बैठ बस्ता गोद में लेती .उसके बाद तभी उठती जब छुट्टी होने पर सारी लड़कियां घर चली जाती . आधी छुट्टी में शारदा और शशि उसके लिए लायी रोटी जरूर उसे देने जाती . कक्षा परीक्षा में भी वह अपना लिखा खुद ही पद कर सुना देती और सुन कर दीदीजी नम्बर लगा लेती जबकि हमारी कापियां वे साथ ले जाती .एक एक अक्षर पढ़ती तब जा कर नम्बर मिलते और नम्बरों से ज्यादा डांट मिलना पक्का तो था ही .सो नौरती से ईर्ष्या तो बनती ही थी न . इसलिए मन ही मन उससे जलन होने लगी थी . हूँ क्या किस्मत है . न सीट की चिंता ,न टिफिन लाने की न कापियां जचवाने की मौज ही मौज है महारानी की
और एक दिन ये सब अपने से दो क्लास आगे वाली वीना दीदी को कह ही दिया तो उन्होंने कानों को हाथ लगा ईश्वर से माफ़ी माँगी . मुझसे भी आकाश की ओर हाथ जुडवा माफ़ी मंगवाई - पागल हुई हो क्या ? तभी ऐसी बातें सूझ रही हैं . कुछ जानती भी हो अरे वो मैला ढोते है न रमई और बिज्जू उनकी बेटी है नौरती . ये तो प्रधानजी इसकी फ़ीस भर रहे हैं .बड़ी दीदी इसको किताबे दिलाती हैं इसलिए स्कूल आ पाती है वर्ना माँ के साथ मैला ढो रही होती .
सचमुच उस दिन अपनेआप पर शर्म आई .घर आकर मैंने ठाकुर जी का धन्यवाद दिया माफ़ी मांगी नौरती के लिए कुछ पेन पेन्सिल निकाले और सुबह उसे देते हुए सौरी बोला तो वो हैरान परेशान हो गई .-
क्या हुआ ?
कुछ नहीं .ऐसे ही .
नौरती मेरे साथ आठवी तक रही उसके बाद उसका क्या हुआ जानने का कोई साधन नहीं है .पर अपनी कापी से पढ़ कर सुनाती वह मुझे आज भी सपने में दिख जाती है 

शुक्रवार, 20 जनवरी 2017

मेरी अध्यापिका थी . बिलकुल सादी वेशभूषा . बार्डर वाली सफेद साडी .जिसका बार्डर तो बदल जाता पर साडी वही रहती .मुड़ी तुड़ी , बिखरी सी . खिचड़ी बालों को कस कर लपेट कर दो सुइयां खोस लेती तो चेहरा और भी रोबदार लगता .हालात ने उन्हें उम्र से पहले बूढा बना दिया था . पर जब वे आँखें बंद कर पढाना शुरू करती तो अधिकांश मंत्रमुग्ध हो सुनते रहते .
सिलेबस की सभी कवितायें उन्हें कंठस्थ थी . व्याकरण उनकी जीभ की नोक पर धरा था . स्वभाव से एकदम कडक पर सब बच्चों की मदद करते भी मैंने उन्हें देखा है .जिस दिन नहीं आती उस दिन सब सूना रहता .
थोडा बड़े हुए तो जाना कि वे बनारस के किसी नामी वकील की चार बेटियों में से एक थी . उनके पति मैथ्स में पी एच डी थे और डिग्री कालेज में व्याख्याता .पर मैथ करते करते दिमागी संतुलन गंवा बैठे .अब शहर की सडकों में भटकते गणित की पहेलियाँ हल किया करते हैं . मायके और ससुराल के बहुत से लोगों ने समझाया कि तलाक लेकर नया घर बसा लो पर उनहोंने नहीं माना .स्कूल से छुटते ही खोजने निकल पड़ती है . और ढूढ़ कर जैसे तैसे घर लाकर नहलाना ,खिलाना सुलाना सब पूरी इमानदारी से साड़ी जिन्दगी निभाया उनहोंने . सुन कर मन श्रद्धा से भर उठा .आज के इस स्वार्थ के संसार में कोई इतना निस्वार्थ कैसे हो सकता है 

रविवार, 15 जनवरी 2017

meri parnaani



परनानी 



वे मेरी पड़ नानी थी।  सामान्य मंझोला कद।  कुछ कुछ सांवला रंग , चेहरा साधारण सिवाए  बड़ी आँखों के आधे सफेद आधे काले बाल कुल मिला कर एक सामान्य भारतीय महिला पर इसके बावजूद कुछ तो था जो उन्हें भीड़ से अलग बनाता था।
 चेहरे पर एक अलौकिक तेज था जो देखने वाले को अभिभूत कर देता।  एकदम रिन  की चमकार वाली सफेद साड़ी ,बन्द गले का कुर्ती नुमा ब्लाउज उनकी पसन्दीदा पोशाक थी वे अक्सर इसी में नज़र आती। हाथ में तुलसी की माला लिपटी रहती और माथे पर चन्दन की गोल बिंदी।  मैंने जब भी उन्हें देखा इसी रूप में देखा।
   नौ साल की थी कि दुल्हन बन ससुराल आ गयी। उनके पति तब मैट्रिक कर  रहे थे खुद को पति के काबिल बनाने के लिए उन्होंने कुछ पति से सीखा तो कुछ सास से।  थोड़े ही दिनों में रामचरित मानस ,गीता ,भागवत का शुद्ध पाठ भी करने लगी और लगे हाथ आठवीं  की परीक्षा भी पास कर ली।  इस बीच पड़ नाना  स्टेशन मास्टर हो गए।  दिन ऐश से बीत रहे थे कि रेल हादसा हो गया रेल डिब्बा उलटने से दो लोगों की मौत हो गयी।  अंग्रेज सरकार का जमाना था , सजा में काले पानी की सजा मिली। वह  भी अफ्रीका के जंगल में .. नाना को जाना पड़ा।पीछे रह गई पड़नानी अपने दो लड़कों के साथ।  जितना पैसा हाथ में था उससे मुश्किल से पांच महीने निकले। उसके बाद गुजारे की समस्या सामने थी उनहोंने पर्दा उतार फैंक दिया  कमर कस ली किसी से मदद नहीं लेंगी न मायके से ,न ससुराल से।  घर के ठाकुर जी को ही अपना सहारा बनाया। और अपनी हँसुली बेच जन्माष्टमी का आयोजन किया झांकी सजा आस पास वालों को दर्शन के लिए आमन्त्रित किया।  लोगों ने दर्शन किये तो खो गए और लोग कहते हैं कि जन्माष्टमी के दिन तक तो कतारें लग गयी थी।  नानी भागवत बांचती तो लोग निहाल हो जाते।  बीच बीच में आज़ादी की जरुरत पर भी चर्चा होती। पर मुख्य ये कि बच्चों के खाने के साथ साथ उनकी इंटर तक की पढ़ाई भी हो गई।  इस तरह बारह बरस बीत गए।  और  एक दिन देश आज़ाद हो गया। साथ ही आई विभाजन की आंधी लोग धड़ाधड़ पाकिस्तान वाली धरती छोड़ हिंदूस्तान  आने  लगे नानी की हवेली जो अब अफ्रीका वालों की हवेली कही जाने लगी थी ,में सात परिवारों ने शरण ली थी जिनका एक महीने तक खर्च पड़नानी ने ही उठाया। इसी बीच अंग्रेज   सरकार ने अपने सभी आदेश वापिस लेकर कैदियों को रिहा कर दिया। पड़ नाना  अंग्रेज सरकार ने यह अधिकार दिया कि वे चाहे तो भारत लौट जाएँ अथवा तंजानिया में जहाँ उन्होंने जंगल साफ़ करवा कर  जमीन बनवाई  है वहां खेती कर सकते हैं। पड़ नाना ने अफ्रीका चुना और नानी को लेने भारत आये पर पड़नानी ने देश छोड़ने से इंकार कर दिया। पड़नाना बोझिल मन से बड़े बेटे को लेकर लौट गए पर पत्नी को नहीं मन सके।  इसके बाद वे हर साल भारत आते रहे।
पड़नानी एक सौ दस साल तक जीवित रही। एकदम स्वस्थ ,चैतन्य ,जिंदगी से भरपूर।  जो चोपड़ की महफ़िल उनहोंने बीस साल की उम्र में शुरू की थी वह उनके मरने वाले दिन तक तीन से पांच तक बदस्तूर जारी रही और ठाकुर जी पूजा आरती भी। एक दिन सन्ध्या आरती के बाद प्रसाद ग्रहण करके उनहोंने देह त्याग किया
पूरी जिंदगी जीवट से जीने वाली यह महिला क्या साधारण थी