पत्थर
सुस्मिता की माँ का देहांत जिन हालात में हुआ कोई भी दहल सकता था। फिर सुस्मिता का तो कहना ही क्या ?
उसकी माँ ने रात के दो बजे घर के बाहर बने पर्दे वाले बिना छत के गुसलखाने में आग लगा कर आत्महत्या कर ली थी। माँ की चीखें देर तक हवा में गूंजती रही थी पर माँ दो मिनट में ही राख के ढेर में बदल गई। सोये लोग हड़बड़ा कर उनके घर के आंगन की ओर भागे थे। जगह जगह झुण्ड बना कर चर्चा में लीन थे।
दुबली पतली सी ,साँवली सलोनी, एकदम से शान्त ,मीरा ऐसा कैसे कर सकती है। सब सोच में पड़े थे। उसके बाद कोई नहीं सोया था।
दो घंटे बाद पुलिस आई थी। ब्यान हुए। सास ने कहा -जिस दिन से छोटी बेटी हुई उसी दिन से गुमसुम रहती थी जी हम तो बहुत समझाते थे पर गम को दिल से लगा ये कारा कर गई। "
पति ने भी अपने बयान में कहा - मुझसे तो खुल के बात ही नहीं की। नहीं तो मैं ऐसा करने देता " .
पुलिस अपनी कागजी कार्यवाही निपटा के मुट्ठी गर्म करवा जा रही थी कि छोटी निष्ठा चिल्लाई।_ " पापा ने कल भी मारा। परसों भी। "
इंस्पेक्टर ने जाते जाते पीछे मुड़ कर देखा तो अमरीक दोहरा हो गया। - " बच्ची है जी घबराई पड़ी है। "
दादी निष्ठा को लगभग घसीटते अंदर स्टोर में ले गई थी - " चुप बिलकुल चुप ! माँ तो गई। बाप को जेल भेजना चाहती है तू। दोबारा अवा तवा बोली तो गला घोट के रख दूँगी। समझी। "
लोग धीरे धीरे घर लौट गए थे। बात थम सी गई थी कि एकदिन सुस्मिता मौका देखते ही बाहर आ सीधे गली में बैठी औरतों के गोल में घुसी। बिना सांस लिए बोली - " माँ मामा के घर नहीं जा रही थी न तो पापा ने रात को बहुत मारा था। माँ रोते रोते सूसू करने गई। बड़ी देर वापस ही नहीं आई तो पापा ने तेल डाल के तीली भी फैंक दी थी आग लग गई थी जोर की। माँ मर गई। "
भल्लाइँन ने सुस्मिता को लगभग साथ भींच लिया था - " न मेरी बच्ची ऐसी बात नहीं करते। तेरी दादी या बाप ने सुन लिया तो मारेंगे तुझे। हमारे साथ लड़ाई होगी वो अलग। किसी से मत कहियो बच्ची "
लेकिन अगले ही दिन सुस्मिता की बात की पुष्टि हो गई जब अमरीक एक बच्चे समेत एक औरत को घर ले आया। शादी तो दो साल पहले किसी मन्दिर में कर चूका था। घर लाना बाकी था वह भी हो गया।
अमरीक की माँ ने इस बहु का स्वागत सादगी से ही किया था। दोनों बेटियां चुपचाप देखती रही थी। बाप से तो पहले ही सम्वाद कम था। अब खत्म सा हो गया।
सास ने मौहल्ले को खबर दी थी इन शब्दों में - बेचारा मर्द। क्या करता बेचारा। दो बेटियां जन दी थी। बेटा तो चाहिए था न। हमने तो बथेरा कहा . भई तू भी रह आराम से वो भी रहेगी। मानी ही नहीं मर के सुखी हो गई "
अब ये पत्थर हमे ही सम्भालने है।"
और अगले दिन ही चौदह साल की सुस्मिता किसी रिक्शावाले के साथ भाग गई। मरनेवाली का गन्दा खून जो थी। पत्थर थी पत्थर।