शुक्रवार, 18 मार्च 2016

ये औरतें

  मीरकोट से खालापार जाते हुए शाहों की बङी सी हवेली ।हवेली क्या, महल और उस पर सीमेंट में खुदा  शाह । पर सहारनपुर के लोगों के लिए वह हमेशा शाहनी केसर बाई की हवेली ही रही । करीब सौ साल पुरानी हवेली । पीतल के कोके और कील जडा बडा दरवाजा, दरवाजे के बाहर बने लाल वर्दी पहने  और बन्दूक पकडे दो अँग्रेज़ चौकीदारों  के आदमकद बुत  उसे और भव्य बनाते थे ।
हवेली के भीतर ड्योढी बनी थी  जिसके दोनो और चबूतरे बने थे जहाँ कभी   बडे शाहजी अपने असामियो के साथ बैठक सजाते थे।  और अंदर जाने पर आँगन के एक तरफ नौकरों के लिए आठ कमरे, दूसरी ओर ठाकुर जी का मंदिर और कुँआ ,बीचो बीच तुलसी जी । उसके बाद बड़ा सा आँगन पार करने पर चार  सीढियाँ और  । उन्हे चढ कर मुख्य इमारत । खुला बरामदा। । उसमें बिछा दीवान,  धुली चादर और गाव तकिया लगाये बैठी शाहनी केसर देई जो अकसर किसी काम में व्यस्त दिखाई देती ।  पास बिछी चारपाइयों पर  करजा लेने आए लोगों की भीड लगी रहती ।
शाहनी गोरी चिट्टी मानो रंग  में केसर घुला हो।  सफेद बाल इसी हवेली   में  सफेद हुए।    जब शाहनी दुल्हन  बन कर इस हवेली में आई तो दस साल की छोटी सी बच्ची थी। सास ससुर तो देख देख निहाल होते । तीन ही दिन रह केसर मायके लौट गई थी । पीछे छोड गई थी चूङियों और पायल की खनक तथा सूना आँगन । सास ने सूनापन भरने को तीसरा साल लगते ही गौना करा केसर को बुला लिया था । छमछम करती केसर बारह साल की उम्र में गृहस्थिन हो गई। पर उसने देखा उसका पति रमेसर हमेशा उससे बचने की कोशिश करता । शाहनी ने उस वक्त तो चैन की साँस ही ली थी आठ साल बङा ये पति कहीं उससे झगङा करने लगा तो वह अपने घर कैसे जाएगी।

शनिवार, 12 मार्च 2016

ये औरते

उसने कक्षा में  प्रवेश किया। सब उसे ही देखने के लिये मुङ गए.।गोरा चिट्टा रंग,तीखी नाक, छोटी पर कुछ बोलती सी आँखेँ,घुघराले बालोँ को कस के दो चोटियो में समेट दिया था।  विमी   मैडम ने आँख उठा कर देखा और वह चालू हो गई - मेरा नाम है छमा । मैम ने रजिस्टर में लिखा-क्षमा। न जी न मेरा नाम तो छमा है जी । सारी लङकियाँ हँस पङी थी। पर शाम होते होते पूरी क्लास जान गई थी कि वह ओम शर्मा के बेटे जयेश की इकलौती साली है। वो तो जीजी माँ बनने वाली है इसलिए आना पङा। पहले जीजी बीमार हो चुकी है न वरना वह यहाँ क्यों आती । कि जीजा जी उसे बहुत प्यार करते हैं कि जीजी भी उसे प्यार करती है पर कभी कभी डाँट देती है ।जीजी की सास बहुत खराब है, उन्हे सीधा करना पङेगा।
                        और अगले ही  वह दस परांठे  और ढेर सारा अचार ले आई थी। ये क्या इत्ता सारा ,कौन खाएगा ये सब । तुम सब और वह खिलखिला कर हँस पङी और फिर आगे की कहानी यह  कि रात दाल ज्यादा बन गई थी तो दीदी की बुढिया सास देर तक बडबडाती रही थी । आज से तुम पाँच लोग खाना मत लाना ,तुम्हारा खाना मैं लाऊँगी    ।और अगले डेढ साल तक उन पाँचो हरिजन सखियो का खाना वह खुद बना कर लाती रही ।जीजी की सास से सुलह तीसरे ही दिन हो गई थी हर रोज वे उसे एक रुपया देती जिस की टाफियाँ, इमली की दावत पूरी कक्षा की होती । उसने स्वेच्छा से जीजी के घर का सारा काम सँभाल  लिया था  ।
खेल के मैदान में वह सब से आगे रहती तो   पढाई में भी बढिया कर रही थी । अब उसकी बातों में बुढिया जिसे वह मौसी  कहती थी के साथ साथ भानजे रवि की शरारतों का भी जिकर् होता । इस सब में दो साल कैसे निकल गए, पता ही चला । दसवीं की परीक्षाएँ शुरू होने वाली थी कि एक दिन जीजी और जीजाजी मिठाई लेकर स्कूल आए ।क्षमा की शादी तय हो गई थी। परीक्षा  समाप्त होते ही छमा डोली मे ससु राल चली गई। उसकी सुघडता  दॆख जीजी की ममिया सास ने अपनॆ वकील बेटे के लिए छमा को माँग लिया था ।
उसके बाद छमा से कोई संपर्क नहीं है पर मैं जानती हूँ कि अपनी कर्मठता और सबको अपना बनाने की कला से उसने सब का मन जीत लिया होगा