झील किनारे बैठी सुरती दूर उठते धुएं को निहार रही थी .यहाँ थर्मल की झील के सामने अपनी झुग्गी डाले उसे तीन साल हो गए है . यहाँ वह अपने छ बच्चों के साथ झाडू बना कर बेचती रही है .इससे पहले वह उसके जैसे लोग भट्टी रोड पर रहते थे .अचानक एक दिन उन्हें वहां से उजाड़ दिया गया .तो वे सब यहाँ आ गए . पहले तो बड़ी मुश्किल हुई .छोटे छोटे बच्चे अक्सर सडक के बीचोबीच आ जाते तो उसका कलेजा मुंह को आ जाता . अब बच्चे सडक पार करना सीख गए है बडकू तो झील से कभी कभी मछली भी पकड़ लाता है .पर कल फिर पुलिस वाले अपने साथ किसी साहब को लेके आये थे - चलो चलो कल सुबह तक सड़क खाली करो सडक चौड़ी होगी समझे . सुरती को कुछ समझ नहीं पद रहा . अब किधर जायेगी .जाना तो पड़ेगा और कोई चारा ही नहीं है
मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017
झील किनारे बैठी सुरती दूर उठते धुएं को निहार रही थी .यहाँ थर्मल की झील के सामने अपनी झुग्गी डाले उसे तीन साल हो गए है . यहाँ वह अपने छ बच्चों के साथ झाडू बना कर बेचती रही है .इससे पहले वह उसके जैसे लोग भट्टी रोड पर रहते थे .अचानक एक दिन उन्हें वहां से उजाड़ दिया गया .तो वे सब यहाँ आ गए . पहले तो बड़ी मुश्किल हुई .छोटे छोटे बच्चे अक्सर सडक के बीचोबीच आ जाते तो उसका कलेजा मुंह को आ जाता . अब बच्चे सडक पार करना सीख गए है बडकू तो झील से कभी कभी मछली भी पकड़ लाता है .पर कल फिर पुलिस वाले अपने साथ किसी साहब को लेके आये थे - चलो चलो कल सुबह तक सड़क खाली करो सडक चौड़ी होगी समझे . सुरती को कुछ समझ नहीं पद रहा . अब किधर जायेगी .जाना तो पड़ेगा और कोई चारा ही नहीं है
रविवार, 19 फ़रवरी 2017
रानी हमारे घर अपनी शादी का कार्ड देने आई थी। मैंने उसे बधाई दी - एकदम सही फैसला किया तूने। सारी जिंदगी कोई अकेला कैसे रह सकता है। बिलकुल सही समय पर शादी कर रही हो " आपने ही मुझे शादी के लिए तैयार किया दीदी। वर्ना मैंने तो फैसला कर लिया था सारी जिंदगी ऐसे ही अकेले काटने का। आप आशीर्वाद देने जरूर आना। मैंने आने का पक्का वादा किया। वह चली गयी।
मैंने कार्ड उलट पलट कर देखा। दो दिन बाद की शादी थी। चलो रानी अपनी जिंदगी में सैटल हो जायेगी। सोच कर अच्छा लगा
रानी ने मेरे ऑफिस में दो साल पहले जॉइन किया था। यह पहली बार था जब कोई लड़की अकेली सर्विस जॉइन करने आई थी वरना हर लड़की के साथ माँ बाप या भाई आते। दफ्तर के माहौल के बारे में पूछ ताछ करते। रहने का इंतजाम करते। पूरी तसल्ली होने पर ही वापिस लौटते। और यह लड़की। इस तरह अकेली। उसकी आँखों में असुरक्षा और अनिश्चितता स्पष्ट दिख रही थी फिर भी निडर और निशशँक दिखने की पूरी कोशिश कर रही थी।
मैंने बाकी लोगों से उसका परिचय कराया। शर्मा जी ने उसे उसका काम और सीट दिखा दी। शाम को छुट्टी से पहले उसे कैबिन में बुला कर पूछा - कहाँ रहने का इंतजाम किया है ? वह अचकचा गयी। अभी तो सोचा नहीं ऑफिस के बाद स्टेशन जाकर सामान लाना है। अभी क्लॉक रूम में जमा है। फिर कोई अच्छा सा होटल ले लेगी। दो चार दिन में घर मिल जाएगा तो वहां शिफ्ट कर लेगी।" वह एक साँस में बोल गयी।" चलो मेरे साथ। " मैंने गाडी की चाबी और पर्स उठाते हुए कहा तो वह बिना कोई सवाल किये मेरे पीछे पीछे चल दी।
हमने स्टेशन से उसका सामान लिया। वह मेरे साथ मेरे घर आ गई। लेकिन न तो उसने कोई फोन किया न कोई फोन आया। रात के खाने की मेज पर उसने कहा - दीदी आप को परेशानी हुई। मैं तो होटल में भी रह जाती।
" पागल हुई हो. इस छोटे से शहर में ऐसा कोई ढंग का होटल नहीं है जहाँ जवान खूबसूरत लड़कियाँ अकेली जाकर रह सकें। " उसकी आँखों में नमी छलक आई थी जिसने उसे भीतर ही समा लिया -
" दीदी मैं तो इससे भी छोटे शहर में अकेली रहती हूँ। आज से नहीं , पिछले सात साल से। "
तुम्हारे घर में.... . "
" कहने को सब हैं पर मैंने ही घर छोड़ दिया। "
मैंने सांत्वना देने को कहा -" छोड़ो यह सब पहले खाना खाओ।" और वह चुपचाप कौर तोड़ने लगी थी। चार दिन में ही दीपक और अंकुर ने उसके लिए एक सुरक्षित छोटा सा घर ढूंढ दिया था। पर वह अक्सर छुट्टी वाले दिन मेरे बच्चों से मिलने चली आती।
एक दिन बातों बातों में उसने अपनी राम कहानी बताई।
जब वह मात्र अठारह साल की थी और बी ए में दाखिला लिया ही था कि उसकी मौसी ने अपने देवर के मन में रानी के लिए आकर्षण देख उसके रिश्ते की बात चलाई . देवेन्दर ने तब बी एस सी के दुसरे साल में दाखिला लिया था . एक सादे फंक्शन में दोनों की सगाई हो गई .सब ठीक चल रहा था . परिवारों ने फैसला लिया कि इस बैशाख में दोनों की शादी कर देंगे .अचानक देवेंदर का pmt में चयन हो गया और शादी टल गयी . लेकिन देवेंदर और रानी एक दुसरे को ख़त लिखते रहे .देवेंदर की चिट्ठियों में लम्बे लम्बे प्रणय निवेदन रहते .
समस्या तब हुई जब रानी से चार साल छोटी गुड्डी का भी एम् बी बी एस में दाखिला हो गया . देवेंदर ने फोन पर रानी को कहा -तुम कहो तो मै गुड्डी से शादी कर लूं .एक बार तो रानी सन्न रह गयी फिर उसे लगा देवेंदर मजाक कर रहा है . इतने साल का प्रेम ऐसे कैसे खत्म हो जाएगा .उसने हंसते हुए कहा -जाओ कर लो शादी .
देवेंदर की बहन और माँ अगले ही दिन गुड्डी का रिश्ता लेकर पहुँच गयी .हैरानी की बात यह कि रानी के घर वालों को भी दो डाक्टरों का रिश्ता सही लगा . एक ही हफ्ते में गुड्डी मिसेज देवेंदर हो गयी रानी ने घर छोड़ दिया .माँ ने उसे मनाने समझाने की कोशिश भी की पर बाकी किसी को कोई फर्क पड़ा हो ऐसा रानी को लगा नहीं . वह होस्टल में रह रही थी बी ए खत्म होते ही उसने एक ऑफिस में नौकरी कर ली और दोबारा घर गयी ही नहीं . अकेले अपने आप से और समाज से लड़ रही थी . मैंने उसे आशा वादी होने की सलाह दी .
आज दफ्तर के ही मनोज से उसने शादी कर घर बसाने का फैसला किया था .दोस्तों और रिश्तेदारों के नाम पर चंद दफ्तर के ही लोग इस कोर्ट मैरिज और पार्टी में शामिल हो रहे थे .मेरा जाना तो बनता ही था .
शनिवार, 11 फ़रवरी 2017
गर्मी का
महीना . जून
के अलसाए दिन .
उस पर स्कूल की
छुट्टियाँ .
यानि एक करेला दूजे
नीम चढ़ा . मन
चाहता -तितली
की तरह मस्त हो अमराई में घूमूं
और खट्टी खट्टी कैरियां चुन
चुन के खाऊ .
पर माँ की आग्नेय
आँखों की आंच झेलने की हिम्मत
इस नन्हीं सी जान में कहाँ थी
.मन
मार कर तकिये में सर घुसाए
निस्पंद लेटी थी .
लेकिन मन था की पंखे
की तरह लगातार चक्कर काट रहा
था .
अचानक
अलमारी खुलने की आहट हुई .चोर
आँख से देखा -माँ
श्रृंगार मेज के सामने खड़ी
अपनी साडी की भंज जमा रही थी
. हूँ
…...... हमें
तो ….लू
लग जायेगी बेटे ….बाहर
नहीं निकलना .
खुद कहाँ जा रही हैं
. मैंने
मन ही मन इस नजर बंदी से फरार
होने की योजना बना ली .
तभी बाहर
पास ही शंख और घड़ियाल बजने का
कोलाहल सुनाई दिया .माँ
बाथरूम चप्पल में ही साडी के
पल्ले से सर ढकती बाहर के गेट
पर लपकी .पीछे
पीछे में .
बाहर गली
का दृश्य अनोखा ही वातावरण
सृजन कर रहा था .
सावित्री दी ने सर
से पाँव तक सफ़ेद कपड़े पहने थे
. हमेशा
स्कर्ट या जींस में घूमने वाली
सत्तो दी सूती सफेद चुन्नी
में सर लपेटे अजूबा लग रही थी
. लोग
लपक लपक कर उनके पैर छूने की
कोशिश कर रहे थे .
सारे माधो नगर ,तिलक
नगर और गढ़ी के लोगों में होड़
लगी थी - कौन
पहले चरण स्पर्श करेगा और
मोक्ष पहले कौन पायेगा .
किन्ही स्वामी जी
की जय जयकार के साथ सावित्री
दी की जय वातावरण को गूंजा रही
थी . सत्तो
दी इस सब से निर्विकार आकाश
में न जाने क्या ढूंढ रही थी
.
भगवे
वस्त्रो में आच्छादित कुछ
साध्वियों ने भीड़ को एक तरफ
हटने का संकेत दिया .भीड़
एक मिनट में दोनों हाथ जोड़ कर
सडक के दोनों ओर खड़ी हो गई .
सत्तो दी को खुली
जीप में बिठा दिया गया .भीड़
ने गेंदे और गुलाब की वर्षा
की . शंख
बजे .जय
घोष आकाश गूंजा गया जीप चल पड़ी
साथ ही उन्मादी भीड़ भी जयकारे
लगाती आगे आगे चली .माँ
ने अपनी जगह खड़े ही प्रणाम
मुद्रा में हाथ माथे से छुहाये
.माँनो
बहती गंगा में स्नान किया .
मैंने माँ
का हाथ खींचते हुए पूछा -
माँ !
आज सतो दी का ब्याह
है ? “ हट
पगली कही की "
माँ ने हल्की चपत
लगाई और ईश्वर से मेरे इस अपराध
की क्षमा मांग ली .
तेरी सत्तो दी तो
साध्वी बन गई री .
शादी ब्याह जन्म
मरण से बहुत उपर उठ गई हैं .
“
मेरी कुछ
समझ नही आया .
में तोशी के पास गई
.तोशी
!! दीदी
जीप में बैठके कहाँ चली गई
.तोशी
की आँखे रो रो कर लाल हो गई थी
- दी
अब घर कभी नहीं आएगी .
वो आश्रम चली गई .
"
"आश्रम
क्यों "
वे सन्यासिन
हो गई हैं
पर दी की
तो शादी होने वाली थी न .:
शादी कहाँ
? जहाँ
भी बात चली हमेशा लेन देन पर
आकर अटक गयी .कुछ
दिन बाद लडके वालों की चिट्ठी
आ जाती .लडकी
की कुंडली नहीं मिल रही .पांच
बार रिश्ता होते होते रह गया
. “
पर दी को
तो सर्वंन पसंद था न .अब
तो कालिज में पढ़ाने भी लग गया
है .उसकी
माँ खुद रिश्ता लेके आई थी न
"
उसके लिए
न ताउजी माने न पापा .
यादव था न फिर शर्मा
की बेटी से शादी कैसे होती
.ताऊ
जी ने माँ -बेटे
की बेज्जती करके घर से निकाल
दिया .
साध्वी
बनने का फैसला दी ने लिया था
.माँ
बहुत रोई .पापा
ने समझाया .फिर
हामी भर दी .
पिछले पन्द्रह दिन
से तैयारी चल रही थी .कल
भगवन से दी की शादी है .
शादी या
? -मुझे
अब भी कुछ समझ नहीं आ रहा .
गुरुवार, 9 फ़रवरी 2017
सुमन की माँ दो कोठी में काम करती है . सुमन और उसके दोनों भाई सुबह होते ही सड़क पर कचरा बीनने आते है .सुबह क्या मुंह अँधेरे ही निकलते हैं . घंटाघर की घड़ी तब साढ़े चार या हद से हद पांच बज रहे होते हैं . सड़क पर गिरी बोतलें ,खाली डिब्बे गत्ते के कार्टन ,सब सधे हाथों से साथ के बोरे में समाते चले जाते है .हाथ तेज ,नजरें उससे भी तेज चल रही होती हैं .जितनी जल्दी चुना जा सके उतना अच्छा . ठीक छह बजते ही झाड़ू देने वाले माँ बेटा आ जायेंगे .फिर उन्हें घर लौटना होगा क्योंकि उसके बाद के सारे कचरे पर गोबिंद का हक हो जाता है . कचरे का बोरा लेकर वे कबाड़ी मोहन के डेरे पर जाते है .उस दिन का सामान ढेर कर सवालिया नजरों से मोहन को देखते है .मोहन तराजू पर तौलता है और कुछ रूपये उनके हाथ पर रख देता है .रूपये लेकर बच्चे रौनक की दूकान पर जाते है .दाल चावल या आटा जो मिल जाए जितना मिल जाए लेकर घर झुग्गी में लौटते है चूल्हा जलता है खाना बनता है थोडा थोडा खाकर बच्चे स्कुल चले जाते हैं . यह उनका रोज़ का नियम है .सर्दी गर्मी बरसात कभी कोई फर्क नहीं . फर्क सिर्फ इतना कि आज सुमन ने कबाड़ी के पास मेडिकल की किताबे देखी तो मांग ली और गजब ये कि कंजूस मोहन ने बिना कोई किन्तु परन्तु के वे सारी किताबें सुमन को दे भी दी हैं .सुमन उन किताबों को गले लगाये झुग्गी में जगमगाती आँखों में जगमगाते सपने सजाये बिलकुल उसी प्रकार बैठी है जैसे ग्यारहवी में मेडिकल सब्जेक्ट लेने के बाद बैठी थी . डाक्टर तो बनना ही है . चाहे साड़ी रात मोमबत्ती की रौशनी में पढना पड़े . जागती आँखों के सपने सुना है अवश्य पूरे होते हैं
सोमवार, 6 फ़रवरी 2017
नरेंद्र कौर , हाँ यही नाम था उसका। मोटी तो नहीं पर गुथें बदन की मालकिन नरेंद्र कौर। कोई नाम छोटा कर बुलाने की कोशिश करता तो गुस्से से जलता अंगारा हो जाती। दो भाइयों की इकलौती बहन , माँ बाप से ज्यादा दादा दादी की लाडली।
पढ़ाई में बहुत अच्छे में तो नहीं पर गुजारे लायक नम्बर आ ही जाते। बारहवीं में अंग्रेजी में सबसे ज्यादा नम्बर आये तो पक्का हो गया कि अंग्रेजी ही पढ़ानी है बड़े होकर। एक दिन बी ए , बी एड करके सरकारी स्कूल में भैन जी हो गई।
घर में पहली तनख्वाह के पच्चीस सौ आये तो नरेंद्र कौर की शादी का जिक्र भी शुरू हुआ। पहला रिश्ता आया लड़का बैंक में नौकर था। पर बात सिरे न चढ़ी । लड़का नरेंद्र को पसन्द ही नहीं आया . बोली - कैसे चपर चपर खाता है और हंसता तो पूरा मुँह खोल के है . मैंने नई करना इससे ब्याह। घर वाले बोले कोई बात नहीं। रिश्तों की क्या कमी हमारी नरेंद्र कौर को। एक रिश्ता आता एक रिश्ता जाता। कोई लड़का काल था। कोई लम्बा नहीं था और एक लड़का तो इसलिए नापसन्द हो गया कि उसने पहला सेंटेंस जो बोला कितना गलत था। फिर एक दिन सुरेंदर को एक लड़का कुछ कुछ ठीक सा लगा तो लड़के ने कद कम होने की बात कह के रिश्ते से मन कर दिया
दादी ने बात सम्भालने की कोशिश भी की। कम कहाँ जी पूरे पंज फुट तिन इंच है जी कद। पर लड़के का कद था छः फुट। सो इस बार भी बात बनते बनते रह गई। धीरे धीरे साल बीत ते गए। नरेंद्र कौर बत्तीस पार कर गई । रिश्तों की तलाश और तेजी से शुरू हुई। अब रिश्तेदारों ने विधुर और तलाक शुदा पुरुषों के रिश्ते जुटाने शुरू किये क्योंकि इस उम्र तक का कोई लड़का कुंवारा बिरादरी में मिलना तो असम्भव ही था। करते करते जब सैंतीस भी पार हो गए तो माँ बाप की बैचैनी बढ़ी। पर एक दिन स्वयम नरेंद्र कौर ने इस सारी प्रक्रिया पर रोक लगा कर अध्याय को हमेशा हमेशा के लिए बन्द कर दिया। उसने दो गरीब बच्चों की देखभाल और शिक्षा का सारा जिम्मा लेकर उनकी जिंदगी सँवारने का जिम्मा लिया है।
बुधवार, 1 फ़रवरी 2017
मजनू आजकल रिक्शा चलाता है . जो कमाता है शराब और गुटके की पुड़िया में उड़ा देता है . उसकी मेहरारू बिशनसिंह की मेहरारू कहलाती है .यही पक्का नाम है मजनू का . एकदम छुईमुई सी पतली दुबली अगर बच्चों की पलटन साथ न हो तो कोई मान ही नहीं सकता कि वह पांच बच्चों की माँ है . कितने बरस की हो के सवाल पर वो उँगलियों पर गिनने का उपक्रम करती है -एक ठो पांच बीसी तो हो गए दीदी जी . सिर्फ पच्चीस साल , जी दीदी जी सलमान का बाप ठहरा मौसे कोई दसेक बरिस बड़े . तो उ ठहरे पैतीस क .नसा ने खा लिए . . तू रोकती नहीं .वह मुस्कराई थी .खर्च कैसा चलता है -दो ठो देवर है गाँव के ओही खर्चा चलावत है सगरा . वह मानवती मुझे अनुत्तरित कर चली गई .
सदस्यता लें
संदेश (Atom)